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मोक्षकाष्ठ वाले विजय लिमये..जो पेडोंको जीवनदान देते हैं!

एक पर्यावरणप्रेमी, जिन्होंने पेड़ोंकी कटाई से व्यथित होकर हिन्दू अंतिम सँस्कार पध्दति में पर्यावरण पूरक बदलाव ना केवल ढून्ढ निकाला बल्कि, उसके प्रचार-प्रसार को अपना लक्ष्य बना लिया।

मोक्षकाष्ठ वाले विजय लिमये- अब यही उनकी पहचान है। “पराली मत जलाओ । बेचकर रुपए कमाओ ।” यह नारा है नागपुर निवासी वैज्ञानिक श्री विजय लिमये का। उन्होंने प्रदुषणपर उपाय भी ढूंढ निकाला है, ‘मोक्षकाष्ठ’ जिससे मिला है एक वर्ष में दस हजार पेडोंको जीवनदानभी ! कैसे? पढ़िए।

इंडिया इनपुट डेस्क

एक मृतदेह के दहन हेतु, १५ वर्षोंके दो पेड काटने पडते है। लेकिन, पारम्पारिक  दहनपद्धति में बदलाव के लिये प्रेरित विजय लिमये नामक धुन के पक्के पर्यावरणप्रेमी ने नई मोक्षकाष्ठ पद्धति विकसित की है। इस द्वारा एक वर्ष में अनुमानित ५००० दहन विधी हो चुकी है। इससे अनुमानित १०,००० पेडोंको जीवनदान मिला है! देशभर में प्रति वर्ष एक सौ स्क्वायर किलोमीटर भूमिमे बसे जंगल की कटाई से जो लकड़ी प्राप्त होती है, वह दहनसंस्कार में काम आती है। लेकिन, अब यदि  मोक्षकाष्ठ का चलन लागू हुआ तो इसकी आवश्यकता नहीं होगी।  खेतोंमे कटाई के उपरांत शेष बची पराली जलानेके बजाए उसे मोक्षकाष्ठ उत्पादनहेतु बेचकर किसान रुपए कमा सकेंगे। दिल्ली और उत्तर भारत का शीतकालीन प्रदुषण कम होगा, सो अलग।

पारम्पारिक दहन पद्धतिसे अंतिम संस्कार करते हुए हम पर्यावरण की दृष्टी से भारी किमत चुकाते हैं। लेकिन, अब यह पर्यावरण प्रेमी, एक ऐसी नयी पद्धतिको लेकर मिशन मोड़ में सक्रीय हो चुका है जिस से प्रति दहन ५० किलो कार्बन डाय ऑक्साइड कम निकलता है, पेड़ोंकी कटाई नहीं करनी पड़ती और किसानोंको आर्थिक लाभ मिलता है सो अलग। बस, अब जागरूकता लाकर इसे पूरे भारत में लागू करने की देरी भर है।

३०० किलो लकड़ी, ३ लिटर केरोसिन!

मृत शरीर को परम्परागत पद्धतिसे अग्निसंस्कार देने अर्थात, अग्नि को सौंपने से आरोग्य और भूमी की समस्या जटिल नहीं होती! लेकिन, पर्यावरण पर कुछ दुष्परिणाम होते ही हैं। एक औसत अनुमान के हिसाबसे एक  चिता केलिए करीब ढाई हजार रुपये खर्च होता है। इसमें ३०० किलो लकड़ी लगती है अर्थात पंद्रह वर्ष आयु के दो पेड़। साथ ही ३ लीटर केरोसिन का खर्च भी इसमें शामिल है। यदि घी का इस्तेमाल होना हो तो खर्च कुछ और बढ़ जाता है। लेकिन, इस पूरे तरीकेमे  इस से वायु प्रदूषण के अलावा बड़े पैमानेमें वृक्षोंकी कटाई होती है। महानगर पालिकाएँ भी सालाना बजटसे लाखो रूपये इसमें खर्च करती हैं।

इसके लिए विद्युत शवदाहिनी का विकल्प भी आया! किन्तु, यह विकल्प कुछ ही शहरोंमें उपलब्ध है। इसके अलावा अमूमन देखा गया है, कि इसे अपनानेमें परिवारके सदस्य झिझक महसूस करते हैं। क्यूंकि, हिन्दू मान्यताओंके चलते, अंतिम संस्कारकेलिए  प्रकृति से प्राप्त लकडियोंकी पारम्पारिक चिता का प्रयोग धार्मिक विश्वासोंके साथ गहराई से जुड़ चुका है। हालांकि, लकडियोंकी बढ़ती किमतोंके चलते अब कहीं कहीं रबर के टायर भी इस्तेमाल होने लगे है, जिस से वायु को प्रदूषणद्वारा अपरिमित हानि होती है।

बदलाव का आरंभ मोक्षकाष्ठ द्वारा!

इस विषयमें इस वैज्ञानिक की सोच नया बदलाव ले कर आई है। मेकैनिकल इंजिनीरिंग में ग्रॅज्युएट तथा पेशेसे मराइन इंजिनीअर ५४ वर्षीय विजय लिमये ने ठान लिया है कि, अब वो दहन पद्धतिमे बदलाव कराके ही मानेंगे। एक अनुमान के अनुसार, प्रति दहन साधारण आकारके दो पेड़ इतनी लकड़ी चाहिए होती है। अनुमान है कि, प्रतिवर्ष देशमें एक करोड़ अंतिम संस्कार दहन पद्धतिसे किये जाते हैं। इनमे हिन्दू, सिख, जैन तथा बौद्ध शामिल हैं। विजय लिमये बताते हैं कि, इस हिसाब से प्रति वर्ष एक सौ स्क्वायर किलोमीटर भूमिमे बसे जंगल की कटाई  होती है, ऐसा मानना चाहिए। चूँकि यह कटाई, अलग अलग इलाकोंमें बिखरी है लिहाजा इकठ्ठे खुले रूपमें नहीं दिखाई देती। किन्तु फिरभी पर्यावरण के लिहाजसे  यह एक स्लो पॉइजन की तरह ही है। भारत के अलावा नेपाल और श्रीलंका समेत कई  देशोंकेलिए भी यह कोई छोटी समस्या नहीं है।

प्रधानमंत्री मोदी द्वारा सराहना।

ये वही विजय लिमये हैं जिनके पर्यावरण संरक्षण हेतु ऐसे प्रयासोंकी प्रधानमन्त्री श्री नरेंद्र मोदी रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ में सराहना कर चुके हैं। इसके चलते लिमये का उत्साह बढ़ा और उनके काम के बारेमें ज्यादातर लोग जानने लगे हैं। हालांकि, लिमये ने  प्रधान मंत्री श्री मोदीके निर्वाचन क्षेत्र  वाराणसी में इस पद्धति को बढ़ावा मिले इस हेतुसे काफी प्रयास किये, क्योंकि यह शहर हिन्दुओंकी धार्मिक मान्यताओंके अनुसार बडा अहम स्थान है। वहाँ यदि नयी पद्धति अपनायी गयी तो देशभरमे और विदेशोंमें भी आसानीसे अपनायी जा सकेगी। यही उम्मीद इन प्रयासोंके पीछे थी। किन्तु, लिमये का अनुभव बुरा रहा। वे वाराणसी में उनके प्रयासोंको मिली असफलताके पीछे उत्तर प्रदेश के शक्तिशाली लकड़ी माफिया और स्थानिक राजनीति को जिम्मेवार मानते हैं। हालांकि, विजय लिमये अब भी आशावान हैं ।

क्या है मोक्षकाष्ठ?

मोक्षकाष्ठ
मोक्षकाष्ठ अर्थात, जलने हेतु लकड़ी का पर्यावरणपूरक पर्याय।

आपने उत्तर भारत में खेतोंमें किसानोंद्वारा प्रती वर्ष खेतोंमें फसल कटाई के बाद शेष रहनेवाली पराली जलाए जाने से ठंड के दिनों में भीषण प्रदुषण के बारेमें सुना होगा, उसका अनुभव भी किया होगा।

लिमये अपने जीवन का लक्ष्य मानकर जिस नई पद्धति को बढ़ावा दे रहे हैं उस ‘मोक्षकाष्ठ’ में इस्तेमाल होती है खेतोंमें फसल कटाई के बाद शेष रहनेवाली वही पराली तथा अन्य इसी तरहकी वस्तुएँ जिन्हे आमतौरपर बेकार मानकर किसानोंद्वारा यूँही जला दिया जाता है। अब, मोक्षकाष्ठ निर्माण में उपयोग के चलते  किसानोंको इसके भी करीब एक से दो हजार रुपये मिलने लगे हैं।

इन्हे गोलाकार ब्रिक्स याने ईंट के आकार में लकड़ी जैसे रूप दिया जाता है। लोहेके स्टॅण्डमे पार्थिव शरीर के इर्दगिर्द और ऊपर इन ब्रिक्स को रच दिया जाता है।

विजय लिमये के गृहनगर नागपुर का अंबाझरी दहन घाट ‘मोक्षकाष्ठ’ पद्धति अपनाने वाला पहला दहन घाट बन चुका है। यहां नवंबर २०२१ तक गत पाँच वर्षोंमें लगभग सत्रह हज़ार से अधिक शवों का इस पद्धति के द्वारा दहन किया जा चुका है। मतलब, अनुमान लगाया जा सकता है, कि चौतिस हजार से भी अधिक पेडोंकी काटे जाने से रक्षा हुई है।

यह मोक्षकाष्ठ लघु उद्योगोंके विकास हेतु बड़ा अवसर उपलब्ध करता है, क्योंकि प्रती गाँव औसतन पंद्रह अप्रशिक्षित श्रमिकोंको रोजगार दिलानेकी इसमें क्षमता है।

‘मोक्षकाष्ठ’ द्वारा कई गुना लाभ! 

प्रति किलो लकड़ी के जलनेसे अनुमान है कि, एक किलो कार्बन डाई ऑक्साइड पर्यावरण में जा मिलता है, जो मानवी शरीर केलिए हानिकारक है। तीन सौ किलो लकड़ी के बजाय ढाई सौ किलो मोक्षकाष्ठ में एक दहन हो जाता है जिस से पांचसौ रुपयोंकी बचत  साथ वायुमंडल पचास किलो कार्बन डाई ऑक्साइड के प्रदूषण से बच जाता है।

नागपूर देश का पहिला और अकेला शहर है जहाँ, सोलह स्मशान भूमि से   छह स्मशानभूमिमें पिछले कुछ वर्षोंसे  इस पद्धति का लगातार उपयोग जारी है और औसतन हर साल करीब पांच हजार से अधिक शवोंपर इसीतरह अंतिम संस्कार किये जा चुके हैं।  लोगोंका अनुभव यह है कि, इस ‘मोक्षकाष्ठ’ पद्धति में शव जल्दी जलते हैं, धुआँ कम होता है और बारिश के दिनोंमें  गीली लकडियोंसे परेशान होना नहीं पड़ता। महाराष्ट्र के अन्य कुछ शहरोंमें ‘मोक्षकाष्ठ’ पद्धति का चलन लागू कराने लिमये अब भी प्रयासरत हैं।

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