वनोंमें कटाई की जांच करवाइये, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्रीजी!
भारी जंगलतोड़ मामला, किश्त दूसरी । 'वन भवन' भूल गया अपनी मूल जिम्मेदारी। आला अधिकारियोंने शिकायतकर्ता की एक न सुनी। बैरंग लौटाया। अब निगाहें वनप्रेमी वनमंत्री -सी एम श्री उद्धव ठाकरे की ओर। सर, बेतहाशा कटते जंगलोंको इन्साफ कब मिलेगा?
वनोंमें कटाई का एक बडा मामला! गोंदिया जिलेके जंगलोंमें हुई पेड़ कटाई मामले पर इंडिया इनपुट की रिपोर्ट में जांच के नामपर लीपापोती की बात साफ़ कर दी गई थी। अब इस मामले को उठानेवालोंके साथ आला अधिकारियोंने क्या बेरुखी दिखाई ,ये पढ़िए।
इंडिया इनपुट डेस्क।
गोंदिया जिलेमें हुई वनोमें कटाई मामले के शिकायतकर्ता और गोंदिया जिलेके सॉ मिल ओनर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष श्री मोहन पटेल तथा वरिष्ठ सामजिक कार्यकर्ता तथा हिन्दू महासभा से जुड़े श्री मोहन कारेमोरे आला अधिकारियोंसे गुहार लगाने महाराष्ट्र वन विभाग के हेडक्वार्टर नागपुर के वन भवन गए। बात सोमवार दिनांक २८ फरवरी २०२२ की है। उम्मीद थी, कि इतने बड़े पैमाने पर नियमोंको धता बताकर की गई धांधली के विषय में आला अधिकारी संजीदा होंगे। जांच के नाम पर नियमोंके विरुद्ध जारी छलावे की बात सुनेंगे। लेकिन, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। अधिकारियोंने मिलने से या बात करने से मना कर दिया। जी हाँ, जिन पर इन पेड़ोंको बचाने और धांधलियां रोकने का जिम्मा है उन्हीं अधिकारियोंने शिकायतकर्ता की बात नहीं सुनी।
वनोमें कटाई पर अधिकारियोंमें खलबली
दोनों शिकायतकर्ता तब सन्न रह गए जब पी सी सी एफ (प्रोटेक्शन) श्री प्रवीण चव्हाण ने साफ़ कह दिया के मामला उनकी कार्य परिधि के बाहर है। उनकी परिधि के जंगल बेतहाशा काटे जा रहे हैं, उन्हें कानूनी माल में मिलाकर बेचा जा रहा है और ये मामला उनके ज्यूरिस्डिक्शन का नहीं, ये कैसे?
शिकायतकर्ता उन्हें बताना चाहते थे कि ‘सर, क्या आप भूल रहे हैं, कि वनों की रक्षा अर्थात प्रोटेक्शन आपका ही जिम्मा है। यदि प्रोटेक्शन में गड़बड़ी है तो आप जिस कुर्सी पर विराजमान हैं उसका ही कर्तव्य बनता है और आप को ही देखना है। आम जनता शिकायत लेकर कहाँ जाएँ ?’ लेकिन, वो सुनते तब सुनाते न? उनके लिए तो सैंकड़ों पेड़ोंकी वनोमें कटाई के खुले आम मौजूद सबूत भी शायद कोई मायने नहीं रखते। इस मामलेसे बचने की, दूर होने की कोशिश किस के हित में है ? पेड़ और पर्यावरण के तो हरगिज नहीं। आखिर ‘समय नहीं है’ यह बहाना बता कर किसे बचाने का प्रयास जारी है ?
दोनों शिकायतकर्ताओंने पी सी सी एफ, श्री वाय एल पी राव से मिलने की कोशिशें भी की। लेकिन, वे सरकारी प्रक्रिया में इतने ज्यादा व्यस्त थे कि इस बेहद गंभीर मामले को सुनाने के लिए कुछ मिनट भी जुटा न सके। आखिर कोई भी दायित्व या काम, मूल दायित्व से भी क्या बड़ा हो सकता है ?
सुत्रोंसे यह भी पता चला है कि ‘वन भवन’ में अधिकारी ने यहां तक कह दिया कि, ‘आदिवासी किसान को कितना माल लौटाना चाहिए यह क़ानून नहीं बताएगा। आप अस्सी क्यूबिक मीटर की क्या बात करते हो, हम किसान को और उसके रिश्तेदारोंको दो सौ क्यूबिक मीटर भी दे सकते हैं।’यदि प्रस्तुत अधिकारी ने वाकई ऐसा कहा है, तो यह रवैय्या बेहद चिंताजनक है। महोदय ने यह भी बताना चाहिए कि, किसान और उसके कथित रिश्तेदार को लौटाने के लिए आप और कितनी सरकारी वन भूमि पर पेड़ोंकी कत्ले आम करवाएंगे?
इंडिया इनपुट प्रस्तुत अधिकारी से पूछना चाहता है, ‘आप बड़े अधिकारी हैं, जंगल के मालिक बन बैठे हैं और बेहद दरियादिल भी है, सौ क्या दो सौ क्यूबिक माल देना चाहते हैं। लेकिन सम्बंधित किसान के खेत में उतने पेड़ ही न हो तो क्या करेंगे? अपनी दरियादिली को साबित करने क्या आप सरकारी वनभूमि के पेड़ कटवाएंगे ? जैसा इस मामलेमें सामने आया है?’
उक्त अधिकारी से इंडिया इनपुट का सवाल यह भी है कि ऐसा महाराष्ट्र में कौन आदिवासी किसान है जिसके खेती पर सौ क्यूबिक मीटर माल हो सकता है? और ऐसा कौन सा आदिवासी किसान है जिसे सौ या दो सौ क्यूबिक मीटर टिम्बर की जरुरत है? महाराष्ट्र के किसी भी वन मंत्री, वर्तमान या पिछले वन मंत्री को अपने निजी कार्य के लिए क्या कभी इतने टिम्बर की जरूरत पड़ी ? फिर ये अधिकारी खुद को वन भूमि के मालिक समझ कर किसे इतना माल देने की बात कर रहे हैं?
मामला तो यही है, कि मात्र दो हेक्टेयर भूमि पर अस्सी क्यूबिक लकड़ी का रिकॉर्ड तोड़ महा उत्पादन कैसे संभव हुआ ? क्या इसमें सरकारी भूमि से कटाई किया गया माल नहीं मिलाया गया ? फिर इस मामलेकी पारदर्शी जांच करवाना तो छोड़ अब लगता है, सम्बंधित आला अधिकारी पूरी मगरूरी पर, बेपरवाई पर उतर आये हैं।महाराष्ट्र फारेस्ट प्रोड्यूस एक्ट (रेग्युलेशन ऑफ़ ट्रेड ) १९६९ के अनुसार लकड़ी उत्पादन करनेवाले किसान को ३ या ४ क्यूबिक मीटर टिम्बर उसके घरेलु जरूरतोंके लिए लौटाया जा सकता है। लेकिन, उसकी पड़ताल भी होनी चाहिए कि वह टिम्बर लकड़ी वह स्वयं की आवश्यकताओंको पूरी करनेमें इस्तेमाल करेगा। किन्तु यहां तो पूरी अस्सी क्यूबिक टिम्बर लकड़ी उस आदिवासी किसान के रिश्तेदारोंको प्रयोग में लाने के लिए दी जारही थी।
वह तो शुक्र है कुछ कार्यकर्ता तथा गोंदिया डिस्ट्रिक्ट सॉ मिल ओनर्स एसोसिएशन के सदस्योंका जिनके चौकस चौतरफा सवालोने डी एफ ओ को अपने ही आदेश निरस्त करने पर बाध्य कराया।
जमीनी स्थिति का अवलोकन करने पर एक बात साफ़ हो जाती है कि, डेपो में दर्शाया गया माल काफी बड़ी मात्रा में है और सम्बंधित किसान के शेष दो हेक्टेयर खेतीसे निकाला हो नहीं सकता। फिर यह माल आया कहाँसे ? अर्थात पड़ोस की सरकारी वनभूमि से जहां अवैध कटाई सबूत के सप्रमाण मौजूद हैं। इस बात की सघन और पारदर्शी जांच के साथ साथ इस बात की भी जांच आवश्यक हो जाती है कि वे रिश्तेदार कौन हैं और किसके हैं जीउनके लिए वन अधिकारी इतने भारी पैमानेपर टिम्बर लकड़ी रिलीज करवाना चाहते थे ? इनवाते नामक प्रस्तुत आदिवासी किसान के वे रिश्तेदार हैं या ठेकेदारों के परिचित खरेदी दार हैं ?लेकिन, व्याप्त गड़बड़ी और धाँधलीओंकी जांच करवाने में अधिकारीयोंकि दिलचस्पी नहीं दिखती। उन्होंने तो नियमोंके विपरीत उसी नागपुर सर्किल के अधिकारी को जांच के लिए नियुक्त कर भेजा। और उस अधिकारी ने भी शिकायतकर्ता को कोई सूचना दिए बगैर और उसे साथ लिए बगैर उलटे पूरे मामलेमें लिप्त सम्बंधित ठेकेदार को साथ लेजाकर खानापूर्ति करने की कोशिश की। जांच अधिकारी तो सर्वेयर भी साथ लेकर नहीं गए, वे जांच क्या करेंगे ?
सी एम साहब, जंगलोंकी जांच करवाइये !
अकेले गोंदिया की बात करें तो वहाँ पिछले डेढ़ दो वर्षोंसे भारी पैमाने में जंगल कटाई शुरू है। हर तरफ थोड़ी थोड़ी दूरी पर ठूंठ ही ठूंठ दिखाई देते हैं। लेकिन, नियमानुसार दुसरे सर्किल से ईमानदार अफ़सरोंको पारदर्शी जांच के लिए नियुक्त किया जाना चाहिए। जांच के दौरान कार्यकर्ता और शिकायतकर्ता को उपस्थित रखना चाहिए। वन प्रेमी कार्यकर्ताओंका दावा है कि , ‘पिछले लगभग डेढ़ दो वर्षोंमें गोंदिया से जो नीलामियां हुईं उनकी फाइलें खोली जाएंगी तो काफी बड़ा घोटाला सामने आएगा। ऐसा हर सर्किल में होगा तो महाराष्ट्र के वन घोटाले की एक एक परतें खुलने लगेंगी।’