Emergency 1975-77 : आपात्काल 50 वर्ष.. तानाशाही का सच!
एक पोस्टमार्टम उन तर्कों का, जो आपातकाल के बचाव में दिए जाते रहे हैं.. पढ़ें और शेयर करें।

Emergency 1975-77 : आपात्काल के पचास वर्ष बाद.. उस तानाशाही का घिनौना सच! न वकील न दलील, ऐसी निरंकुश अवस्था थी, देश में जनता की। भारत में राजनैतिक बंदियों पर हुए थे असीमित अत्याचार। इस वर्ष २५ जून को उसके पचास वर्ष पूर्ण होंगे ! लेकिन, हैरानी की बात तो यह है कि आज भी कुछ तत्वोंद्वारा emergency 1975 -77 के समर्थन के प्रयास किये जाते हैं, उस हेतु बेबुनियाद और सत्य से परे कुतर्क दिए जाते हैं। प्रस्तुत है, ऐसे ही कुछ अहम कुतर्कों की हकीकत।
डॉ. नम्रता मिश्रा तिवारी
Emergency 1975-77.. आपातकाल .. तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी ने अदालत का फैसला विपरीत जाने पर प्रधानमंत्री पद से इस्तिफा देने के बजाय जब लोकतंत्र का गला घोंट देना उचित समझा था।
आपातकाल के दौरान मीसा और काफेपोसा जैसे कानून लागू थे। मीसा में गिरफ्तारी से पूर्व अथवा बाद में कोर्ट में पेश करना आवश्यक नहीं था। ये तमाम अन्याय अत्याचार कहीं प्रकाशित हो न जाएं इस लिहाज से आपातकाल के दौरान 250 भारतीय पत्रकारों को बंदी बनाया गया, वहीं 51 विदेशी पत्रकारों की मान्यता ही रद्द कर दी गई थी।
आइये डालें, एक नजर उन तर्कों पर.. जो आपातकाल के बचाव में दिए जा रहे थे..
कहा जाता है कि आपातकालीन परिस्थिति थी इसलिए आपातकाल लगाया था। मौलिक अधिकारों का दुरुपयोग हो रहा था! तर्क ये है, कि प्रधान मंत्री किसी पार्टी का नहीं बल्कि समूचे देश का होता है। लेकिन, श्रीमती इंदिरा गांधी को अकेले टीका टिप्पण सहन करना पड़ रहा था। राज नारायण जैसे राजनेता राजनीति का स्तर नीचे कर रहे थे। विपक्ष केवल एक व्यक्ति अर्थात श्रीमती गांधी को लक्ष्य बना रहा था। उनके विषय में उलजलूल बातें, लेख तथा व्यंगचित्र छप रहे थे।
तर्क देनेवाले बताने लगते हैं, कि समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने उन्हें गूंगी गुड़िया कहा था। एक महिला प्रधान मंत्री के चलते पुरुषप्रधान राजनीति असहज हो चुकी थी। पांच छह वर्ष पहले उन्होंने बांग्लादेश को स्वतंत्र कराया था लेकिन, विपक्ष उनकी इस उपलब्धि को भुला देने पर आमादा था।
ऐसे में यह दर्शाना लाजमी था कि वे कोई गूंगी गुड़िया नहीं हैं। वह उन्होंने दिखा दिया। वे देश विदेश में आयरन लेडी के रूप में लोकप्रिय बन गईं।
जबकि, यह सब मात्र आंशिक सत्य है। पूर्ण सत्य यह है कि अदालत का फैसला विपरीत जाने पर प्रधानमंत्री पद से इस्तिफा देने के बजाय श्रीमती गांधी ने जब लोकतंत्र का गला घोंट देना उचित समझा था। जी, हाँ। जाती हुई कुर्सी बचाने देश पर आपातकाल थोपा गया था। स्वयं को देश से ऊपर मान कर उन्होंने लगभग वह सब कुछ किया जो तानाशाह किया करते हैं।
देखिये, विरोध को लोकतंत्र में महत्वपूर्ण स्थान है। टिका और टिप्पणियां स्वस्थ लोकतंत्रके निदर्शक होते हैं। जो भी राजनीति में हो, पुरुष या स्त्री, यह सहजता से स्वीकार करना, उसे सहन करना और लोकतंत्र तथा देश के लिए सम्मानजनक दायरे में अपना पक्ष रखना इसी में ही उनकी और लोकतंत्र की गरिमा होती है। अदालत ने जो फैसला दिया था उसके उपरांत सुश्री गांधी के सम्मुख दो ही रास्ते थे। गरिमामय ढंग से इस्तीफा देना या येन केन प्रकारे कुर्सी को चिपके रहना, उसके लिए आवश्यक जो कुछ भी करना हो, फिर वह कितना भी अलोकतांत्रिक कदम क्यों न हो, वह करना। उन्होंने यही दूसरा मार्ग चुना। अन्य देशों में मिलिट्री कूप याने सेना के विद्रोह होते थे। भारत में प्रधानमंत्री बना व्यक्ति ही स्वयं तानाशाह बन गया था।
Emergency 1975-77..आपातकाल : अनुशासन का पर्व ?
आपातकाल के समर्थक यह कभी कभार तर्क देते सुने जाते हैं, कि वर्ष 1975 में आपातकाल लगाए जाने के दौरान की स्थितियाँ देखें तो यह साफ हो जाता है कि इस अभूतपूर्व अनुशासन पर्व की आवश्यकता थी । उनके अनुसार ऐसा इसलिए था क्योंकि सरकार के प्रति विद्रोह चरम पर था। मोरारजी देसाई और कामराज इंदिरा विरोधी थे और स्वयं प्रधानमंत्री बनना चाहते थे। देश में अलग अलग स्थानों पर आंदोलन भडकाए जा रहे थे।
वर्ष 1973 तथा 74 के हालात ऐसे थे.. गुजरात में कुछ काँग्रेस नेताओं द्वारा नवनिर्माण अभियान चलाया गया था। छात्रोने शिक्षा मंत्री के खिलाफ अभियान चलाया था। सीएम द्वारा इस्तीफे के बाद राष्ट्रपती शासन लागू हो गया था। एक केंद्रीय मंत्री ललित नारायण मिश्र की बम द्वारा हत्या कर दी गई थी। वर्ष 1974 में बिहार में छात्र आंदोलन हुआ। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जय प्रकाश नारायण उर्फ जे पी इस से जुड़े और उन्होंने सम्पूर्ण क्रांति की घोषणा कर दी थी।
करीब एक माह बाद जॉर्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में रेलवे कर्मचारीयों की सबसे बड़ी यूनियन देशव्यापी हड़ताल पर। हजारों कर्मी अरेस्ट किए गए थे, उनके परिवारोंको रेल्वे क्वार्टर्स से निकाला गया था। उधर, जे पी द्वारा लोकसंघर्ष समिति की घोषणा। मोरारजी देसाई और नानाजी देशमुख इस से जुड़े। व्यापक आंदोलन की घोषणा हुई। पी एम आवास का घेराव की योजना बनाई गई थी। ट्रेनों को बंद करवाने की योजना थी।सरकारी दफ्तर और अदालतों को बंद करवाने की इच्छा थी।
आपातकाल समर्थक कहते सुनें जाते रहे हैं कि शासन तंत्र प्रभावित हो रहा था और आर्थिक स्थिति चरमरा रही थी। ऐसे समय विद्रोह को कुचलकर एकता की भावना जागृत करना आवश्यक था। देश का ध्यान अन्य मुद्दों में भटकने के बजाय विकास पर केंद्रित हो यह भावना थी। इस दौरान कृषि और संरचनात्मक विकास हेतु कुछ भूमिकाएं ली गईं जिनसे विकास कार्य आगे बढ़े।
Emergency 1975-77..कैसा अनुशासन पर्व? विशुद्ध तानाशाही!
सच तो यह है, कि आपातकाल में हुई गंभीर और घिनौनी घटनाओं का समर्थन करने का यह शर्मनाक प्रयास है, जिसका समर्थन कतई नहीं किया जा सकता। क्या आपातकाल के समर्थक यह कहना चाहते हैं कि जिस उच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी के चुनाव में विजय को अवैध करार दिया वह अनुशासित नहीं था? क्या अदालतों का सरकारों के लिए प्रतिकूल फैसला देना यह देश के प्रति अनुशासनहीनता होती है? यही सोच तो तानाशाही सोच का उदाहरण है।
क्या उच्च न्यायालय में इंसाफ मांगना, न्याय की उम्मीद रखना यह लोकतंत्र में विद्रोह होता है? लोकतंत्र में विरोध और आंदोलन की प्रमुख भूमिका होती है। ऐसे में लोकतंत्र में यदि मजदूर, कर्मचारी अपनी जायज मांगों केलिए आंदोलन शुरू कर दें तो क्या वह विद्रोह होता है? उनसे इस पर चर्चा करने के बजाय उन पर सरकारी यंत्र द्वारा कहर बनकर टूटना या उनके आंदोलन को कुचलना यह लोकतांत्रिक कदम नहीं बल्कि दुर्भावनापूर्ण विशुद्ध तानाशाही रवैया है।
लोकतंत्र में राजनैतिक पराजय मिले तो तानाशाही शुरू कर दो, ऐसा कई देशों में हुआ दिखता है है। वही उस दौर में भारत में देखने मिला था। आपातकाल समर्थक कहीं किसी पुस्तक या लेख में दबी छिपी जुबान में कहते दिखते हैं कि आपातकालनके दौरान काँग्रेस नेता और इंदिराजी तानाशाह नहीं थे।
यदि आज भी 1975 के आपातकाल के समर्थक कांग्रेस और श्रीमती गांधी को लोकतंत्र के समर्थक बताते हैं और दावा करते हैं कि इमरजेंसी के दौरान संविधान के तहत रह कर लोकतांत्रिक स्वतंत्रता को निलंबित किया गया, तो यह महज राजनीतिक पैतरेबाजी है और कुछ नहीं। और इसी तरह के दावों की पोल खोलने, नई पीढ़ी ने आपातकाल की हकीकत जाननी चाहिए, उसका अध्ययन करना चाहिए। आपातकाल के दौरान जो कुछ हुआ उसपर लीपापोती करने आपातकाल के समर्थक यह तक कह देते हैं कि आखिरकार आपत्काल के उपरांत चुनाव की घोषणा भी सुश्री गांधी ने ही की थी।
जब की सत्य तो यही है कि आपातकाल के दौरान प्रधानमंत्री ने स्वयं को भरपूर तथा असीमित शक्तियां दी थीं जो कि संविधान के ठीक विपरीत था। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को निलंबित कर दिया गया था। सच्ची पत्रकारिता को जेलों में ठूंस दिया गया था या सेंसरशिप के तहत दबाने का निरंतर प्रयास हो रहा था। संसद ने चुनावोंको विलंब से करना तय करने वोटिंग किया था। ये सब तभी संभव हुआ क्योंकि संविधान को ही निलंबित किया गया था।
सुश्री इंदिरा गांधी के समर्थक भी यह मानते हैं कि तानाशाही का एक लक्षण होता है वंशवाद। पंडित मोतीलाल नेहरू ने पं जवाहरलाल नेहरू को आगे बढ़ा कर क्या यह प्रस्तुत नहीं किया? क्या पं नेहरू ने इंदिरा गांधी को सुनियोजित तरीके से आगे नहीं बढ़ाया? क्या यह सत्य नहीं कि उन्होंने चुनाव प्रचार में स्वयं कम चुनिंदा स्थानोंपर जाने की बात कही और अन्य स्थानोपर इंदिरा गांधी को भेजा?
तब से उफान पर चढ़ा वंशवाद आज तक हावी रहा है। कांग्रेस में राष्ट्रीय अध्यक्ष कोई भी हो, नंबर वन और नम्बर टू गांधी परिवार से होते हैं। आज किसी भी राज्य में कांग्रेस के शीर्ष नेताओं को देख लीजिए। उनके माता पिता कौन थे पूछ लीजिए। विडंबना तो यही है कि इनमें किसी को भी अपने कार्यकर्ताओ में उस पद्यके योग्य अन्य कोई नहीं दिखा।
जब 1969 में कांग्रेस का विभाजन हुआ था तब लोकतंत्र वाली कांग्रेस अलग और वंशवाद तथा चाटुकारिता वाली जमात अलग हो गई थी। इंदिरा कांग्रेस उसी का नाम था। इस पार्टी में भविष्य बनाना हो तो श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रति निष्ठा जरूरी थी। अंध समर्थन तथा खुशमस्करी आवश्यक थी। सुश्री गांधी के सामने खड़े वरिष्ठ और ज्येष्ठ नेताओं की तस्वीरें आज भी देखी जा सकती हैं। ये तस्वीरें क्या बताते हैं? क्या यह सत्य नहीं कि उस दौरान राज्यों के मुख्यमंत्री विधायकों के चयन से नहीं, इंदिरा जी द्वारा नियुक्ति से तय होने लगे थे?
यदि इंदिराजी तानाशाह नहीं थी तो उनके राजनीतिक विरोधी और सिविल राइट्स एक्टिविस्ट को भी अरेस्ट कर उन पर बर्बर जुल्म क्यों हुए? ये गिरफ्तारियां अधिकतर MISA, DISIR तथा COFEPOSA के तहत हुई थीं।
कुछ आंकड़े बताते हैं कि MISA के तहत 34,988 और DISIR के तहत 75,818 गिरफ्तारियां हुईं थीं।
बीस सूत्री कार्यक्रम में उत्पादन में बढौतरी और सार्वजनिक सेवाओं में बेहतरी तथा गरीबी और अशिक्षा निर्मूलन कार्यक्रमोंको अमल करने के विषय पर through the discipline of graveyard is शब्द प्रयोग का इस्तेमाल किया गया था। क्या आपातकाल के समर्थक बता सकते हैं कि ऐसा क्यों लिखा गया था?
आप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समर्थक हो या विरोधी, आपको आपातकाल के विषय में अध्ययन के करने के उपरान्त, आपातकाल के दौरान संघ से जुड़े नेता और कार्यकर्ताओं की भूमिका की अवश्य सराहना करना लाजमी हो जाता है। सत्य यही है कि संघ और उसकी शाखाओं पर आपातकाल के समय प्रतिबंध लगा। संघ के कई नेता और कार्यकर्ताओं को भूमिगत होना पड़ा। उन के परिवारों पर संकटों के बादल मंडराए। सबसे तीखा सत्य यह ही है कि आपातकाल की विभीषिका का सबसे बड़ा कहर संघ से जुड़े लोगों और उनके परिजनों ने भुगता। परिवारों को जीवनयापन करने तथा उनके बच्चों का पालन पोषण करने में दिक्कतें आईं लेकिन हंसते हंसते सहते गए। सब मिलकर दूसरों के लिए रसोई जलाकर रोटियां सेंकने में जुट रहते। छद्म वेश लिए कार्यकर्ताओं को सुरक्षित रखने में लगे रहते। संदेश पहुंचाना, पत्रिकाएं छापकर प्रसारित करना इन कार्यों में लगे रहते।
यहां तक कि कारावास के दौरान बंदियों को निराश नहीं होने देने तथा प्रसन्न चित्त रखने हेतु संघ के कार्यकर्ता विभिन्न गतिविधियां भी करते रहते। इन बातों के उदाहरण कई पुस्तकों में तथा पत्रिकाओं के लेखों में मिलते हैं।
आपातकाल के दौरान संघ की भूमिका पर अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने जो प्रकाशित किया वह भी आँखें खोलने के लिए पर्याप्त है। अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने भारत में उस समय जारी आपातकाल विरोधी अभियान को हमेशा प्रो डेमोक्रेसी मूवमेंट बताया और संघ तथा जनसंघ द्वारा निभाई भूमिका का उल्लेख किया।
24 जनवरी 1976.. दी इकोनॉमिस्ट में प्रकाशित लेख का शीर्षक था yes , there is an underground । इसमें RSS तथा जनसंघ के huge combined strength की बात कही गई। छह हजार पूर्णकालीन पार्टी कार्यकर्ता समेत सर्वाधिक अस्सी हजार इनके ही लोग जेल में हैं ऐसा उल्लेख किया गया।
एक अन्य लेख में इसी अखबार ने छापा कि, लोकतंत्र की इस लड़ाई में अन्य विपक्षी संगठनों ने आंदोलन की पूरी जमीन संघ और जनसंघ के लिए खाली कर दी है। इन आंदोलनों में RSS न केवल आगे बढ़कर नेतृत्व कर रहा था बल्कि महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था।
जे एंटनी ल्यूकस ने एक लेख NYT में प्रकाशित किया जिसका शीर्षक था इंडिया इज वॉट इंदिरा डज। इसमें उन्होंने संघ की प्रशंसा करते हुए लिखा कि संघ के पास पूरी तरह से बारह से इक्कीस वर्ष की आयुवाले मुस्तैद कार्यकर्ताओं का काडर है। उस समय की कांग्रेस सरकार ने संघ पर हिंसक गतिविधियों में कीट होने का जो आरोप लगाया था उसे भी ल्यूकस ने गलत ठहराया।
2 अगस्त 1976 में दी गार्डियन में एक रिपोर्ट के अनुसार कुछ RSS कार्यकर्ता नेपाल पहुंच कर बहाने भूमिगत गतिविधियां और आंदोलन चला रहे थे। इस रिपोर्ट में नेपाली एंबेसी के एक सूत्र के हवाले से कहा गया कि नेपाली सरकार नेपाल पहुंचे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं को कभी भी भारत की कांग्रेस सरकार के हवाले नहीं करेगी। तब के भारतीय गृह मंत्री ब्रह्मानंद रेड्डी का वह ताजा बयान भी इस रिपोर्ट ने प्रकाशित किया जिसमें रेड्डी ने कहा था कि संघ के कार्यकर्ता देश भर में सक्रिय हैं तथा संघ के स्वयंसेवक केरल तक सक्रिय दिखते हैं।
इन्हीं विदेशी लेखों में ये उल्लेख भी मिलते हैं कि वामपंथी नेता भारत में और अधिक कठोर आपातकाल चाहते थे ताकि उनके राजनीतिक विरोधियों का सफाया हो।
28 अक्टूबर 1976.. NYT ने एक आर्टिकल में लिखा कि भारत में केंद्र सरकार और उसे चला रही कांग्रेस पार्टी की केवल वे लोग सपोर्ट कर रहे हैं जो कम्युनिस्ट पार्टियों से जुड़े हैं या मुस्लिम लीग से।
1975- 2025 : आपात्काल के पचास वर्ष.. वर्तमान नजरिए में।
आज 1975 के आपातकाल का समर्थन करने वाले संघ और मोदी सरकार को तानाशाह कहते दिखाई देते है।
उनसे आपातकाल की पार्श्वभूमी पर एक ही सवाल पूछना बनता है। यदि मोदी सरकार तानाशाह है तो 2014 से अब तक कितने राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया? आज केवल मणिपुर में राष्ट्रपती शासन है। उसके पहले जम्मू और कश्मीर में लगाया गया था।
जबकि 1950 से कम से कम 134 बार भारत के राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया जा चुका है।
अतः, नई पीढ़ी को आपातकाल का निष्पक्षपाती तथा निरपेक्ष दृष्टि से अध्ययन करना आवश्यक है। ऐसा करने पर इतिहास और वर्तमान के कई ऐसे सत्य उजागर हो जाते हैं, जो वामपंथी या अन्य कथित इतिहासकार सामने आने से रोकते रहे हैं।
Emergency अर्थात आपातकाल 1975 -77 पर पुस्तकें
#Indira Gandhi, #Article 352, #fundamental rights, #censorship, #political unrest, #suspension of civil liberties.
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